कविता के मंच पर, चोर देखो आ गये है
दूसरो की कविता को, अपनी बताते है
रोला दोहा सोरठा में, अंतर भी नहीं पता
और बडी बडी देखो, डिंगे हाँक जाते है
हम लिखे रात भर, जाने क्या क्या सोचकर
चोर देखो हमारी ही, कवितायें गाते है
लगता है हमको तो, बस अब इतना ही
जन्म देने वाली माँ की, कोख को लजाते है